Friday, December 5, 2008

राजसूंघयज्ञ

प्राचीन ग्रंथों में राजाओं द्वारा राजसूयज्ञ किए जाने का जिक्र मिलता है। इसमें साम्राज्य विस्तार की आकांक्षा रखने वाला राजा राजसूयज्ञ करता था। वह पहले पुरोहितों को बुला कर विधिविधान से यज्ञ करता था तत्पष्चात् एक घोड़ा छोड़ा जाता था जिसके पीछे विजयाकांक्षी राजा की सेना चलती थी। यह घोड़ा सभी राज्यों से होकर गुजरता था तथा जो राजा विजयाकांक्षी राजा की अधीनता स्वीकार कर लेता था वह घोड़े का स्वागत करता था और जो अपनी स्वाधीनता बनाए रखता चाहता था वह सेना की लगाम पकड़ लेता था जिसका अर्थ होता था वह स्वाधीन रहना चाहता है। ऐसी स्थिति में उसे विजयाकांक्षी राजा की सेना से युध्द करना पड़ता था और युध्द के परिणाम द्वारा निर्णय होता था। अगर विजयाकांक्षी राजा की सेना विजयी होती थी तो दूसरा राजा उसकी आधीनता स्वीकार कर लेता था और यदि वह जीत जाता था तो उसकी स्वाधीनता बरकरार रहती थी।

समय बदलता है ओर अपने साथ अनेक बदलाव लाता है। अंग्रेजी कहावत है कि पुरानी व्यवस्था नई व्यवस्था के लिए स्थान बनाती है अर्थात् पुराना बदलता है और नया उसका स्थान ले लेता है। कुछ ऐसा ही राजसूयज्ञ के बारे में भी कहा जाता है। राजसूयज्ञ आजकल बदलकर राजसूंघयज्ञ हो गए है। इसे संपन्न करने वाला पहले से सूंघ लेता है कि उसे राजसत्ता मिलेगी या नहीं। कुछ लोगों की सूंघने की क्षमता कुत्तों को भी मात करती है उनमें कुत्ते के अन्य गुण जैसे भोंकना, काटना भी पाए जाते हैं पर चूंकि वे दोपाए होते हैं अत: उनमें कुत्ते की स्वाभिमान ईनामदारी वाला गुण अक्सर नहीं होता आखिर आदमी-आदमी है पूरा का पूरा कुत्ता थोड़े ही है।

राजसूयज्ञ राजतंत्र में राजा करते थें अब राजाओं का जमाना गया प्रजातंत्र आ गया पर अब भी सत्ता में महत्वाकांक्षाओं का वही स्थान है। अब भी राजसूयज्ञ तो नहीं पर ''राजसूंघ'' यज्ञ होते हैं। यज्ञ की पहले की तरह पुरोहित हवनकुंड के सामने मंत्रोच्चार के साथ तो नहीं करतें पर सत्ता मनीषिगण सत्ताप्राप्ति हेतु मंत्रणा अवष्य करते हैं। चुनाव आयोग में ऐसे मनीशि रहतें हैं इसे राजसूंघयज्ञ की तिथी की घोषणा करते हैं इसे राजसूंघयज्ञ का षंखनाद कहा जा सकता है। प्रजातंत्र में सत्ता एक व्यक्ति के हाथों में नहीं रहती अत: इसके (सत्ता के) आकांक्षी अनेक व्यक्ति होते हैं। समय के बदलाव के साथ राजसूयज्ञ के वंषज राजसूंघयज्ञ हो गए। प्रजातंत्र में सत्ता अनेक लोगों के हाथों रहती है। ये राजनैतिक पार्टियों में बंटे रहते हैं और इन्हें सत्ता सुन्दरी के वरण हेतु कई बार की मुद्रा में भी देखा जाता है। सत्तासुन्दरी का षरीर चुंबकीय पदार्थ का बना होता है और राजनैतिक पार्टियों की महत्वाकांक्षा लोहे की होता है अत: दोनों में चिपकाव स्वाभाविक माना जाना चाहिए।

चुनाव आयोग द्वारा चुनाव की तिथि की घोशणा के साथ चुनाव की षंखनाद कर होता है। चुनाव आयोग की चुनाव की तिथि की घोशणा महाभारत का प्रारंभिक दृश्य की स्मृतियाँ ताजी कर देती है। महाभारत में श्रीकृश्ण, अर्जुन, युधििश्ठर, भीम, नकुल सहदेव सहित और भी अन्यों के षंख की ध्वनि के साथ युध्दारंभ का वर्णन महाभारत में मिलता इसी प्रकार चुनाव की उद्धघोषणा के साथ विभिन्न राजनैतिक पार्टीयां अपना अपना बिगुल लेकर पूँछ फटकाकर अपने चुनाव मैदान में उतरने की उद्धघोषणा करते हैं। पहले के राजसूयज्ञ और आज के राजसूंघयज्ञ में एक अंतर हैं। राजसूयज्ञ राजा की मर्जी से कभी किए जाते थे पर राजसूंघयज्ञ की अवधि निष्चित होती है अत: चुनाव अवधि के नजदिक आने की आहट राजनैतिक पार्टीयों की गतिविधीयों से स्पश्ट सुनाई देने लगती है। बहुत पहले से जनता उनकी आहट जान लेती हैं। बात का यों भी कहा जा सकता है चुनाव की रोटी सोंधी गंध पाँच साल बीतते-बीतते आने लगती है। राजनैतिक पार्टियों के नथुने इस गंध से फड़कने लगते हैं और वे हरकत में आ जाते हैं। कुछ पार्टीयां पहले से ही सजग रहती हैं और कुछ अधनींदी सी उठती हुई और कुछ करीब-करीब सोई अवस्था में चुनाव सुन्दरी के स्वागत हेतु तत्पर दिखाई देती हैं ठीक वैसे ही जैसे ट्रेन या बस में गन्तव्य स्थान आने के पहले कुछ यात्री अपना समान तैयार कर घड़ी देखते हैं तो कुछ अलसाएं से अधजगे से और कुछ जैसे नींद में ही गन्तव्य स्थान पर उतरते हैं। राजनैतिक पार्टियों का भी ठीक ऐसा ही हाल रहता है।

राजसूयज्ञ के समान ही राजनैतिक पार्टियाँ घोड़े (उम्मीदवार) छोड़ने के पहले चुनाव में अपनी स्थिति का जायजा लेने के लिए पर्यवेक्षक भेजती हैं। राजसूयज्ञ कराने के पहले इसका इच्छुक राजा भी पहले अपने गुप्तचर भेजकर अन्य राजाओं की शक्ति के बारे में जानकारी इकट्ठा कर लेता था और जब अपनी स्तिथि मजबूत देखता तभी राजसूयज्ञ कराता था। प्राचीन काल में कुछ राजा घोड़े छोड़ने (राजसूयज्ञ का घोड़ा) वाले की सहज अधिनता स्वीकार कर लेते थे और जो स्वाधिन रहना चाहते थे वे घोड़े की रास पकड़ कर युध्द की उद्धघोषणा करते थे । इसी प्रकार राजनैतिक पार्टियों के कुछ उम्मीदवारों के खिलाफ कोई खड़ा नहीं होता और वे निर्विरोध चुन लिये जाते हैं पर कुछ उम्मीदवारों को कई-कई विरोधियों का सामना करना पड़ता है। मूल बात करीब-करीब दोनों यज्ञों में एकसी है पर बाहरी रूप का अंतर है हमारा भारतीय दर्षन भी मानता है आत्मतत्व एकही होता है अंतर केवल नाम रूप का होता है। प्रजातांत्रिक प्रणाली में चुनाव के रणस्थल में अनेक पार्टियाँ अपनी जोर अजमाइशी के लिए अपने उम्मीदवार उतारती है सुविधा के लिए हम पार्टि के टिकट को राजसूयज्ञ का घोड़ा कह सकते हैं। राजनैतिक पार्टियों की केन्द्रीय समिती अपने उम्मीदवारो को टिकट वितरित करती है। इन पार्टियों का टिकट बस, रेल, हवाईजहाजों के टिकट जैसा नहीं होता। इनके टिकट तो निश्चित धन राशि देकर कोई भी खरिद सकता है पर पार्टियों के टिकट के पीछ्रे भारी किट-किट होती है और किट-किट जंग में जीतता है वही टिकट का अधिकरी बनता है। इसके बंटवारे के समय गुप्तदान अखिलित संविधान की तरह प्रचलन में देखा गया है। कौन किसको कितना दान देता है इसे केवल ईश्‍वर जानता है क्योंकि धरा पर वहीं अदृष्य दृष्टा है।

पार्टी टिकट एक तरह से पार्टी का फरमान होता है जिसका आष्य होता है ''जाओ बच्चा'' अपना भाग्य साथ ही साथ हमारा भी भाग्य चमकाओं। टिकट वितरण स्थल का नजारा सिनेमा हॉल में किसी नई फिल्म के पहले शो के भिड़ की तरह होता है। ऐसा कहा जाता है, जर, जोरू और जमीन जबरे की होती है उसी प्रकार पार्टी का टिकट कोई जबरा ही पाता है वह अपने भक्तत्व (कुत्ता) को साबित कर देता अत: वह पार्टी का टिकट पा जाता है वह अपने भक्तत्व का समय-समय पर प्रदर्शन करता है जो बाद में पार्टी के टिकट के रूपय परिवर्तित हो जाती है। इन झबरो की रस्सी इनकी आलाभमान के हाथ में रहती है कुछ वाकई पूरे-पूरे झबरे होते है इसलिए कभी-कभी रस्सी तुड़ा कर भाग जाते हैं। कुछ अपनी रस्सी दूसरी राजनैतिक पार्टि के हाथ में दे देते है और कुछ छुट्टा फिरने लगते हैं।

जैसे राजसूयज्ञ कराने वाले राजा इसके घोड़े के साथ अपनी सेना भेजता था उसी प्रकार रासूंघयज्ञ के उम्मीदवार के साथ उसके समर्थकों की सेना भेजी जाती है। प्राचीन सेना के पास तलवार, भाले, गदा आदी हथियार रहते थे। रासूंघयज्ञ के उम्मीदवार के पास पार्टी के पर्चे, बेनर, कटआउट नारे आदि हथियार के साथ इसका भी इस्तेमाल करने वाले भी रहते हैं। इनका रणस्थल इनका चुनाव क्षेत्र होता है इनकी रैली में दोपहिए वाहन, पैदल, कारें, ट्रक इत्यादी काफिला रहता है जिसे देखकर किसी सेना का आभास सा होता है। चुनाव के पहले तक उम्मीदवार उम्मीद से रहने वाली स्त्री की तरह होता है। प्रसव के बाद लड़का लड़की भी हो सकता है मेरा बच्चा पैदा हो सकता है बीमार बच्चा पैदा हो सकता है। इसी तरह उम्मीदवार चुनाव जीत सकता है, उसकी जमानत जप्त हो सकती है जमानत बच भी सकती है। उम्मीदवार के रणस्थल की बात इस बीच पीछे छूट गए चुनाव क्षेत्र में मंच पर सवार होकर कभी उम्मीदवार कभी उसके समर्थक अपने विरोधियों की ऐसी तैसी करते हैं जिसकी तुलना प्राचीन युध्द से भी की जा सकती है। चुनाव के दिन के 48 घंटे पहले तूफान के पहले की शांति का सामराज्य हो जाता है पर ऐसा नहीं है की वास्तव में सब कुछ शांत रहता है जैसे समुद्र को देखकर उसके अंदर छिपे तूफान का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता उसी प्रकार इन 48 घंटो में ऊपर से शांत दिखने वाले वातावरण में अंदर ही अंदर बड़ी तेजी से पार्टीयों के क्रिया कलाप चलते रहते हैं। पार्टी समर्थक वोटर प्रभु को प्रसन्न करने के लिए शराब, साड़ी, कंबल, खाद्य पदार्थों के वितरण चुप चाप करते रहते हैं यह कोई नई बात नहीं है पहले भी सत्ता सुन्दरी को हथियाने के लिए षड़यंत्र, प्रपंच, विष कन्याओं, शराब का सहारा लिया जाता रहा है दुनिया में कुछ भी बदलना नहीं केवल उसके बाहय रूप में परिवर्तन आता है। चुनाव के दौरान विरोघियों के पोस्टर झंडे फाड़ना, उनकी सभा में हल्लाह मचाना, अंडे टमाटर फेकना कभी तो मार पीट खूनखराबा भी देखने को मिलता है इनसे जो भी अधिक जबरे होते हैं पीठासीन अधिकारी पर बैठकर ठकाठक वोट छापकर चलते बनते हैं और आम आदमी की वोट डालने की मेहनत बचा देते हैं। ये सच्चे जन सेवक होते हैं।

चुनाव परिणाम वोटों की गिनती के पष्चात घोषित होते हैं और पार्टी समर्थक पुन: काम पर लौट आते है। पुन: वातारण में ढोल मजीरे लाउडस्पीकर के हो हल्ले के साथ उम्मीदवार का विजय जुलूस निकलता है। विजयी पार्टी अपनी राजसूंघयज्ञने की क्षमता का एलान विजय जुलूस के रूप में करती है। जैसे प्राचीन राजसूयज्ञ का घोड़ा सभी राज्यों में घूमकर अंत में अपने राजा के पास लौट जाता है उसी प्रकार विजयी उम्मीदवार संसद विधान सभाओं में पहुंच जाते हैं परन्तु सत्ता का एक ही केन्द्र न रहने के कारण अंदरूनी तोर पर इसकी ठंडी लड़ाई (कोल्डवार) चलती रहती है। यहाँ यह बताना जरूरी है कि राजसूयज्ञ यज्ञ के घोड़े के वापस लौटने पर समाप्त हो जाता है पर राजसूंघयज्ञ में सत्ता पार्टी को पूरे कार्यकाल सूंघने का काम जारी रखना पड़ता है वरना सत्ता के पाये खिसकने का खतरा रहता है। अगर गहराई से देखा जाय तो उम्मीदवार आदमी कम राजसूंघयज्ञ के घोड़े अधिक होते हैं उनका पशुल प्रदर्शन बंद नहीं होता। वे घोड़े की तरह भागने को तैयार रहते हैं। घोड़ा कभी बैठता नहीं बल्कि वह सोता भी खड़े-खड़े ही है। राजसूयज्ञ के घोड़ों और राजसूंघयज्ञ के घोड़ों में एक भारी अंतर है असली घोड़े शाकाहारी होते है जब कि राजसूंघयज्ञ के घोड़े चारातक खाजाते हैं और मांसभक्षी भी होते है। समय के साथ चाहे कितना भी बदलाव आजाये पर आदमी का सत्ताप्रेम बना रहता है। कहा भी जाता है आदमी हाड़मांस का पुतला है सो उसका हाड़मास कभी नहीं बनता। वह अपने हाड़मासत्व को छाती से लगाए रखता है आखिर उसे साधु या देव थोड़े ही बनना है जब उपर वाले ने उसे आदमी तो वह वही बने रहना चाहता है आदमी की लगाम कमजोरियों के साथ वह सत्ता सूंघने के कुत्तत्व से कभी छुटकारा नहीं पा पाता। - Asha Shrivastava

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