Thursday, December 18, 2008

गुरू वंदना

हे सुधासिंधु हे ज्ञानपुंज,
तुम तभ को हरते हवन कूंड
है चित्र रहित मेरा मन पटल,
बन तू ही तूलिका रंग नवल
हे दिशा ज्ञान हे दीप पुँज ।

रवि जहाँ जाने से डरता,
तू निर्भीक वहीं पग धरता,
हे ब्रम्हरूप की एक बूंद ।

मेरी जरा थाम
अंगुली को,
मैं पगतल कर लूं धरती को,
हे कुरूक्षेत्र की अमर गूंज ॥

सरस्वती वंदना

माँ सरस्वती उपकार कर,
मेरे कंठ में भर ज्ञान स्वर ।
हर ओर फैला तमघटे,
नव प्रात सा जीवन बने
रख शीश मेरे वरद कर ।
वलबुंध्दि विद्या दान कर
मुझे सत्य सूर्य प्रदान कर
नभ सम मेरे क्षितिज गढ़ ।
तेरे हंस पंख की छाँव दे,
गिरि शिखर चढते पाँव दे,
हर मन में अपना रूपभर ।
ओ धवल वस्त्र की धारिणी,
दुख हरणि आनंद दायिनी,
मैं शरण तेरी स्वीकार कर ।

Tuesday, December 16, 2008

Asha Shrivastava - Bund Bund Pyaar Bhar Ek Kalash Mein Dalkar



Kaviyatri, Vyangakar, Smt. Asha Shrivastava read her Kavita - Rashtriya Ekta - Bund Bund Pyaar Bhar Ek Kalash Mein Dalkar in Goshthi at Raipur Chhattisgarh by Web Media

Thursday, December 11, 2008

Asha Shrivastava - Chunav Jeet Dala To Life Jingalala - 2



English Lecturer, Sahityakar, Vyangakar, Kaviyatri Smt. Asha Shrivastava read Vyanga - Chunav Jeet Dala To Life Jingalala in Gosthi at Raipur Chhattisgarh by Web Media Part 2

Asha Shrivastava - Chunav Jeet Dala To Life Jingalala



English Lecturer, Sahityakar, Vyangakar, Kaviyatri Smt. Asha Shrivastava read Vyanga - Chunav Jeet Dala To Life Jingalala in Gosthi at Raipur Chhattisgarh by Web Media Part 1

Asha Shrivastava - Maa Saravasti Upkar Kar



English Lecturer, Sahityakar, Vyangakar, Kaviyatri Smt. Asha Shrivastava read Kavita - Maa Sarasvati Upkar Kar in Ghosthi at Raipur Chhattisgarh by Web Media

चुनाव जीत डाला तो लाइफ जिंगालाला

शीर्षक में प्रयुक्त चुनाव शब्द की शल्य चिकित्सा करने से ज्ञात होगा (मुझे तो होता है आपका पता नहीं) कि इसके पहले अक्षर 'चु' 'चुराने' क्रिया का शार्ट फार्म है। और 'ना' गैर फायदेमंद लोगो को नकारने के लिए काम में आने वाला शब्द और 'व' शब्द विषिष्ट का शार्टफार्म है। इस तरह इसका पूरा अर्थ खुद चोरी करो, अपने विरोधियों के हर काम को 'ना' कहो और यही विषिष्ट होने का लाभ है। शीर्षक का दूसरा शब्द है 'जिंगालाला'। अगर इसे आप शब्दकोष में तलाषेंगे तो ढूँढ़ते रह जायेंगे। इसका अर्थ आवाज से उत्पन्न शब्दों की तरह समझना पड़ता है जैसे 'टपटप' शब्द से एक एक बूँद के टपकने का आभास होता है और 'खटखट' से ठोके जाने का। इस हिसाब से जिंगालाला शब्द का अर्थ अत्यंत प्रसन्नता में उच्चारा गया शब्द जहन में आता है। याने चुनाव जीत जाने से जिंदगी में खुषी का प्याला लबालब भर जाता है।

बात की शुरूआत चुनाव के व्यस्ततम समय से की जाना चाहिए। चुनाव के वक्त उम्मीदवार के असापास अत्यंत मव्य वातावरण रहता है। वह एकाएक फोकस में आ जाता है। सारे चुनाव क्षेत्र में उसके झंडे, डंडे का शोर रहता है उसी के नाम के नारे, कट आउट्स, बैनर, नजर आने लगते है ठीक वैसे ही जैसे शादी ब्याह की जगह एकाएक वीडियो कैमरा किसी एक को फोकस करे और वह व्यक्ति उस तमाम भीड़ में ''मिनट भर के लिए ही सही'' एकाएक आकर्षण का केन्द्र बन जाये। चुनाव के दौरान इस होने वाले फोकस के वक्त उम्मीदवार अंदर से यह जानता है कि यह सब उसकी तथा उसके कुछ 'विषिष्ट' सहयोगियों की-जेब का कमाल है। आदमी का स्वभाव है वह मन-ही-मन चाहता है उसके नाम का डंका बजता रहे फिर भले ही वह डंका बजवाने लायक हो या न हो। झूठ के ऊपर एक पतली सी भले की परत के साथ समाज में परोसा जाना आम बातें है, और यह सहज स्वीकार्य भी है सच सब जानते है पर जुबां चुप रहती है। इस प्रकार उम्मीदवार के नाम का सिक्का (भले ही वह कागज का नोट हो) चलता है। यह चलन पुराना है फिरोजषाह नामक बादषाह पूर्व में चमड़े का सिक्का चला चुका है। पर चुनाव के पहले उम्मीदवार के दिमाग में एक किड़ा रेंगता रहता है पता नहीं परिणाम क्या हो। हारने पर इन्हीं गलियों चोराहों विरोधी ढोल बजा-बजा कर मेरी हार की खिल्ली उड़ाएंगे। कुछ विरोधी तो चुनाव के पहले ''गली गली में शोर है फलां फलां चोर है'' के नारे लगवा देते हैं।

न मालूम ऊपर वाले ने मेरे विरोधीयों को पैदा ही क्यों किया मैं तो काफी था मुझसे ही मजे से काम चलाया जा सकता था। मेरी बड़ी इच्छा की एक बार मेरा ऊपर वाले से सामना हो और मैं यह प्रष्न पुछ सकूँ मुझे तो लगता है ये विरोधी तत्व धारी जीव ऊपर वाले के खिलाफ भी झंडे फहरा रहे थे इस लिए ऊपर वाले ने इन्हें नीचे भेज दिया और अब ये मेरे पीछे पड़ गये हैं। यने भगवान ने बला मेरे पीछे छोड़ दी। भगवान आखिर भगवान है सर्वशक्तिमान हैं जिसने मेरे जैसे काइयों को पैदा किया वह खुद कितना बड़ा कांइयां होगा इसका अनुमान लगाया जा सकता है।

अब तो होगया है वोंटो की अटूट शक्ति के, उपहारों, सुरा वितरण की अचूक सेवा पर पुरा विष्वास है। मैं यह अच्छी तरह जानता हूँ कि जीतूँगा तो मैं ही मेरा तो अनुभव है उपर्युक्त प्रकृति वाले ही चुनाव जीतते हैं। पढ़े लिखे सभ्य समझे जाने वाले तो चुनाव के कीचड़ भी लगवा लेते हैं और उसे धों पोंछ कर साफ-सुथरे अच्दे भले 'मदर इंडिया' फिल्म की नायिका नर्गिस की तरह हो जाते है। वह तो सिर्फ फिल्म की शूटिंग के दौरान मिट्टी पोते रहती थी बाद में झका-झक सफेद कपड़े पहन लेती थी। हम भी चुनाव के बाद सफेद साड़ी वाले नर्गिस बन जाते हैं।

लो जी चुनाव परिणाम भी आ गया और वो बिलकुल वैसा ही था जैसा मैंने सोचा था। मैं चुनाव परिणाम देखकर गुनगुनाने लगता हूँ चाँदसी महबूबा होगी मेरी मैंने ऐसा सोचा था। अब मुझे प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री की गुडबुक्स में आना है और अच्छा मलाईदार विभाग हथियाना है। सब जानते हैं जितना ऊँचा मंत्री का कद व पद उतना बड़ा उसका मलाई का कटोरा। मेरे सिक्रेट केमरे में कई साईज के मलाई के कटोरा मैंने इकट्ठे कर रखें हैं अपने नेता को समर्पित करने के लिए। अरे ‘किसी-किसी नेता को पूरे तबेले के भैंसो के दूध की मलाई भी कम पड़ जाती है’। एसी बात बता दूँ मैंने मलाई शब्द इजाद किया है मक्खन की जगह काम में लाने को। मक्खन शब्द लोग पहचानते हैं यह चापलूसी करने वालों के लिए उपयोग में आता है। मैं मक्खन की जगह मलाई शब्द इस्तेमाल करता हँ। बड़ा नेता का एक इंच का मुँह सुरसा के भयानक बड़े मुँह से भी बड़ा होता है ऐसे मुँह पर ढ़क्कन भी तो बड़ा ही लगेगा। पर मैं जानता हूँ जैसे सिमसिम के मंत्र वाला चमत्कार होगा तुरंत स्वर्ग सीढ़ि प्रगट हो जायेगी समूचा इ्रद्रलोक मेरे कदमों में होगा। अफसर अप्सराओं की तरह मेरे इषारों पर नाचेंगे मुझे रिझाएंगे।

मैं पहले अपने लिए एक महलनुमा घर बनवाऊँगी जिसमें दरबारे आम और दरबारे खास की विशेष व्यवस्था रहेगी एक पुरानी सायकल को तरसने वाली जिंदगी के माथे पर हवाई टिकट जड़ दूँगा। जीत की खुषी का कटोरा छलका जा रहा है और उछलकर खुषी बाहर आ रही है कार बंगला बैंक बैलेंस के रूप में। जी कर रहा है हे भगवान मुझे लगे हाथ आषीर्वाद दे डालूँ दूधो नहाओं पूतों फूलों। मेरी सफलता से मेरे दुष्मन की छोड़ो रिष्तेदारों, दोस्तों तक को एनाकोंडा डस गया। मेरे मन में इनके लिए यह शेर बार-बार चक्कर लगा रहा है।
दूर रहे तो जुदाई से हाय हाय करें
मिले तो कमबक्त जहर उगलने लगें,
अजब सुलगती लकड़ियाँ हैं हितैषी,
जो अलग रहे तो धुंआ दें मिलें तो जलने लगें।

अब मैं अपना स्वर्ग द्वार बंद करता हूँ और आपके लिए नर्क का द्वार खोलता हूँ। आपका भला ऊपरवाला करेगा। मुझसे ज्यादा सक्षम हाथों में सौंपता हूँ।

आशा श्रीवास्‍तव
आर. डी. ए. कालोनी,
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टिकरापारा, रायपुर (छ.ग.) 492001
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Friday, December 5, 2008

शिकार बनाम चुनाव

शिकार पुराना शगल है। वैसे अभी भी नवाबों के खानदान वाले (सैफ, नवाब पटौदी) शिकार के बुखार से यदाकदा पीड़ित हो जाते हैं। एक अकेला आदमी जंगल में जाकर शिकार नहीं करता । इसके लिए अमला लगता है। ठीक इसी तरह चुनाव होता है। मेरे कहने की तात्पर्य यह है कि चुनाव ठीक शिकार की तर्ज पर लड़ा जाता है। चुनाव भी एक अकेला नहीं लड़ता । इसके लिए समर्थकों की ज़रूरत होती है। जैसे पहले शिकार करने की ट्रेनिंग लेना पड़ता है उसके गूुर सीखना होता है। ठीक इसी तरह चुनाव जीतने के फार्मूले जानना ज़रूरी होता है। शिकारी अपने पिता से या कभी -कभी अन्य किसी मित्र या संबंधी से इसे सीखता है। चुनाव का उम्मीदवार भी कभी अपने पिता और कभी किसी अन्य से इसकी ट्रेनिंग लेता है। याने यह ट्रेनिंग कभी - कभी वंशानुगत और कभी - कभी वातावरण से ली जाती है। शिकारी का बेटा अपने घर में ऐसे ही वातावरण में पलता है बढ़ता है। नेता का बेटा भी बचपन से नेतागिरी के गुण (गुर) घर में धीरे - धीरे कर अपने पिता, चाचा, दादा इत्यादि से सीखता है।

जैसे शिकार के लिए निशाना साधना आना एकदम ज़रूरी है। इसी प्रकार नेतागिरी में वोटर को सूंधना उसे भलीभांति जानना ज़रूरी होता है। वैसे निशाना तो फौजी या निशानेबाजीं के खिलाड़ी भी लगाते है। जैसे (अभिनव बिंद्रा) पर शिकारी केवल निशाना ही नहीं बल्कि घात लगाना भी सीखता है और यह उसके लिए बेहद ज़रूरी भी होता है। ऐसे ही नेतागिरी सीखने वाले को मतदाता को काबू में करने की कला (घात लगाने की क्रिया) सीखना पड़ता है। मतदाता किस धर्म या जाति का है उसकी रूचियाँ क्या हैं उसकी जरूरतें, कमज़ोरियाँ क्या हैं आदि की जानकारी इकठ्ठा करना होती है। शिकारी भी जानवर की गतिविधियों को देखता परखता है। शिकार कहाँ - कहाँ जाता है। किस जंगल में रहता है कहाँ पानी पीता है इत्यादि की जानकारी होने पर ही शिकार कर पाना उसके लिए संभव होता है। निशानेबाज़ी सीखने वाले खिलाड़ी और शिकारी में अंतर है। निशानेबाज़ी का खिलाड़ी एक लक्ष्य सामने रखकर निशाना साधता है उसे लक्ष्य के बारे में जानने का विशेष प्रयास नहीं करना पड़ता । निशानेबाज़ और शिकारी में वहीं अंतर होता है जो धतूरे के फूल और किसी अन्य साधारण फूल में होता है। वैसे फूल तो दोनों ही होते हैं पर इनकी तासीर में भारी अंतर होता है। नेता मतदाता के बारे में पूरी जानकारी इकठ्ठी करने के बाद ही अपना चुनाव क्षेत्र चुनता है।

शिकारी मचान बनाना, हांके के लिए जरूरी सामान, हांके वाले, मशाल, बंदूक इत्यादि की जानकारी ही नहीं बल्कि इन्हें कैसे इकठ्ठा किया जाय सीखता है। नेता भी पोस्टर, बैनर, कटआउट बनाना, लगाना, जुलूस, सभाओं का आयोजन, मंच बनाना, लाउडस्पीकर, भाषण, नारे लिखने वाले, नारे चिल्लाने वाले बच्चे इत्यादि का इंतजाम करता है और किसी पढ़े लिखे के निर्देशन में पर्चा (उम्मीदवारी का) भरता क्योंकि वह कानून नहीं जानता । उसे ठीक से पर्चा भरना नहीं आता ऐसी हालत में पर्चे के खारिज होने का खतरा रहता है अगर पर्चा खारिज हो गया तो सब धरा का धरा रह जायेगा। इन सबके लिए धन की व्यवस्था करना एक राज का विषय है अब सभी कुछ तो बताना जरूरी नहीं है बस सब देखो और समझो पर छोड़ना पड़ता है। नेता ठीक शिकारी के समान अपने चुनाव क्षेत्र को चुनता है जैसे शिकारी शिकार के लिए जंगल का चुनाव करता है।

शिकारी और नेता अपने 'शिकार' से उसी समय तक सजग व सतर्क रहते हैं जब तक वे शिकार नहीं कर लेते याने शिकारी जब तक जानवर मार नहीं लेता और नेता चुनाव नहीं जीत लेता । उसके बाद तो दोनों की पौबारा शिकारी शिकार का मांस खाता है खिलाता है उसके चमड़े व चर्बी को बेचता है। नेता अपने वोटर को अब ख़ास नहीं आम आदमी याने अदना कमजोर प्राणी समझने लगता है। मतदाता चुनाव के पहले तक ख़ास बाद में आम आदमी में बदल जाता है। आम बड़े मजे का फल है इसका रस पियो, गुठली बेचो, आम पापड़ बनाओ और अंत में फिर से गुठली बों दो और फिर अगली फसल के फायदे काटो आम आदमी भी चुनाव के बाद 'आम' हो जाता है। इसी प्रकार उसे चूसा, बोया और बेचा और बोया जाता है।

बस शिकार और मतदाता में एक बड़ा फर्क है। शिकार तो गोली खाकर मर जाता है पर मतदाता वोट देकर केवल निस्तेज हो जाता है। पर उसके फिर से शक्ति ग्रहण करने की संभावना पूरी तरह समाप्त नहीं होती। जनशक्ति कभी खत्म नहीं होती। भूखा बेबस शक्तिहीन आदमी कभी भी किसी क्रांति का जन्मदाता बन सकता है। इतिहास कहता है घुसे पेट, निकली हुई ऑंखों वाले कंकाल सदृष्य मानव ढांचो से ही क्रांति का जन्म होता है।

नेताओं उस समय तक तुम राजनीति की उस नदी पर पुल बनाते रहो जिसका कोई अस्तित्व नहीं है पर जिस दिन जन जागेगा तुम्हें बचने को जगह नहीं मिलेगी।

श्रीमती आशा श्रीवास्तव
आर.डी.ए. कॉलोनी
टिकरापारा, रायपुर
प्लाट नं. : 45
फोन नं. : 0771-2273934
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''दो ऋण बराबर एक धन''

उपरोक्त शीर्षक देखकर यह मत सोचिए कि मैं गणित की चर्चा करने वाली हूँ या मेरा इरादा गणित सिखाने का है। मैं तो यही कहना चाहती हूँ कि कभी - कभी ज़िंदगी में भी गणित के फार्मूले के हिसाब से घटनाएँ घटती हुई दिखाई देती हैं। जरा खुलकर चर्चा करने पर ही यह बात स्पष्ट हो पायेगी, यह अद्भुत गणित समझ में आयेगा। राहुल महाजन ठीक वैसा चरित्र है जैसा अक्सर बड़े बाप का बेटा होता है अर्थात समस्त अवगुण संपन्न । बात बिलकुल ठीक भी है। बाप का तो सारा समय धन कमाने में लग जाता है, उसे उसका सुख भोग करने का अवकाश ही नहीं मिलता । उसका बेटा अपने बाप के इस अधूरे काम को पूरा करने का भार उठाता है अर्थात बाप के पैसे को खर्च करने और उसका आनंद लेने का कार्य संपन्न करने का संकल्प सकता है। राहुल महाजन ने भी अपने पिता के ऊपर वर्णित अधूरे काम को पूरा करने का बीड़ा उठाया। इसके लिए उसने वाहियात से कहे, समझे जानेवाले कामों की लिस्ट बनाई जैसे ड्रग लेना, शराब, शबाब की शक्कर की चाशनी में डूबना इत्यादि । ये काम वह पूर्ण निष्ठा से करने लगा पर बाहरी दुनिया ! वह उसे गणित का ऋण का चिन्ह समझने लगी !

वह उपर्युक्त वर्णित कार्यो को सिखाने वाले सखा व गुरूओं की संगत में आनंद मार्ग का अध्ययन करने लगा। प्राचीनकाल में विद्यार्थी घर से दूर आश्रम में शिक्षा लेते थे। शिक्षाकाल में वे घर की ज़िम्मेदारियों से दूर रहते थे। राहुल भी इसी तरह अपने परिवार की जिम्मेदारियों को बंद ऑंखों से देखता रहा। पिता की मृत्यु के बाद ड्रग सेवक होने के कारण उसे जेल जाना पड़ा। कुछ समय बाद वह बाहर आया और उसने अपनी एक मित्र से शादी करली पर उसकी ज़िम्मेदारियों से दूर रहने की इतनी आदत हो गई थी कि वह बहुत दिनों गृहस्थाश्रम में टिक नहीं पाया । ड्रग साधक का मन भी साधु के समान होता है वह इस असार संसार में अधिक समय लिप्त नहीं रह सकता । उसके नकारात्मक चरित्र के सकारात्मक होने की सोचना सब्ज़ियों के भाव गिरने जैसा कठिन कहा जा सकता है।

अब मैं दूसरे ऋण ( - ) अर्थात् ऋणात्मक चरित्र की बात करूँगी। मोनिका बेदी का परिदृष्य में अवतरण स्वर्ग से मेनका के उतरने जैसा कहा जा सकता है। बालीवुड किसी स्वर्ग से ज्यादा ही है कम नहीं। बालीवुड में एक ही इंद्र राज नहीं करता वहाँ प्रजातंत्रात्मक तरीके से भी इंद्रासन उपलब्ध नहीं होता वहाँ इंद्र भीड में से उभरता है और सिंहासनारूढ़ होता है। यह ''भए प्रगट कृपाला'' पंक्ति साकार करता सा लगता है। बात इंद्र में अटक गई और मोनिका उर्फ मेनका पीछे छूट गई बॉलीवुड में मोनिका उर्फ मेनका अपना सौंदर्य बिखेरती बड़े पर्दे पर अवतरित हुई। इस मेनका ने वैसे तो किसी को अपने सौंदर्य जाल में फसाने की स्वत: प्रयास नहीं किया पर सौंदर्य में फेबीकाल होता है और अबू सलेम विश्वामित्र की तरह उसमें चिपक गए और इस तरह मेनका अबू के हरम की शोभा बन गई । अबू सलेम ऋषि विश्वामित्र नहीं बल्कि एक डॉन, अंडरवर्ल्ड का किंग था पर जहाँ तक सौंदर्य से प्रभावित होने और प्रेम का संबंध है वहाँ दोनों में कोई अंतर नहीं कहा जा सकता।

मैंने बचपन में सुना था चुड़ैल अपने हाथ लंबे कर लेती है और दूर की चीज़ तक पकड़ लेती है। बड़े होकर मैंने जाना कानून के हाथ लंबे होते है! मेनका (मोनिका) व अबू के मामले में कानून ने अपने हाथ इतने लंबे कर लिए कि दूर के देश से दोनों को पकड़कर उन्हें जेल में बंद कर दिया। इसके बाद बेचारी मेनका जेल और कचहरी के बीच बहुत लंबे समय तक भांवर घूमती रही । प्रेम के जेट में बैठ सोनिया गाँधी प्रधानमंत्री का घर पा गई और मेनका अबू का हरम और कचहरी के चक्कर । उमराव जान फिल्म में भी घर से भगाकर लाई गई दो लड़कियों में से एक को कोठा मिला दूसरी को नवाब की कोठी, यह तो भाग्य का चक्कर है। याने मेनका इस लेख की हेडिंग का दूसरा ऋण ( - ) बन गई।

इसी बीच टी व्ही पर 'एस बॉस' सीरियल शुरू हुआ जिसमें कहीं की 'इंट कहीं का रोड़ा जैसे चरित्रों को लाकर भानुमति का कुनबा याने यस बॉस के किरदार 3 महीने के लिए एक मकान में रख दिए गए । वहीं मेनका + महाजन का परिचय स्थल सिध्द हुआ। वहीं ये दोनों ऋणात्मक चरित्र पासपास आने लगे। अंग्रेजी कहावत है एक से पंखवाले पक्षी एक साथ उड़ते है। राहुल और मेनका के पंखों में भी समानता होने के कारण वे भी इस कहावत को चरितार्थ करते हुए साथ - साथ उड़ने लगे।

अब जानना यह है कि, ये दो ऋणों का परिणाम धनात्मक कैसे हो गया । यह बात बेहद दिलचस्प है। मेनका अबू सलेम के साथ रहती थी अबू उसे अपनी बीबी मानता था। वैसे उनकी शादी का केवल खुदा गवाह था सो इसे जग जाहिर करना कठिन था क्योंकि खुदा की आदत गवाही देने की नहीं है। इधर मेनका ने राहुल से खुल्लम खुल्ला मेल मिलाप बढ़ा लिया और शादी करने के संकेत देने आरंभ कर दिए । सलेम इस पर आग बबूला हो उठा और उसने मीडिया को बयान दिया कि मेनका उसकी बीवी है और वह वगैर तलाक लिए राहुल से शादी नहीं कर सकती। इस पर मेनका ने पलटवार करते हुए कहना शुरू किया कि उसकी सलेम से कभी शादी हुई ही नहीं थी।

सलेम इसके लिए तैयार नहीं था। वह मेनका के प्रेम की चाशनी में रसगुल्ले सा आकंठ डूबा था उसे मेनका के बयान से इतना धक्का लगा कि वह फूट - फूट कर रोने लगा उसका दिल टूट ही नहीं गया बल्कि उसका पावडर बन गया । वह जेल के अधिकारियो, पहरेदारों के सामने घंटों रोता और अपने डॉन वाले नेटवर्क की बात पूरी तरह भूल गया अब वह पहले जैसा जुल्म पसंद नहीं रह गया था बल्कि एक हारे हुए प्रेमी की तरह व्यवहार करने लगा । अभी हाल में मैंने अखबारों में पढ़ा कि वह ठीक से खाना भी नहीं खाता और उसने अपने आपको अकेला भी कर लिया। सलेम की इस हालत ने दो ऋणों के धन बनने में मद्द की। जिस अंडरवर्ल्ड के ख़तरनाक डॉन से पुलिस, सी.बी.आई. परेशान थी जिसका नेटवर्क वह जेल से भी चला रहा था वह मेनका के शब्दों से टूट कर बिखर गया। देश के लिए यह भारी राहत व खुशी की बात है। मेरा तो मानना है भारत सरकार को मेनका को परमवीर चक्र देना चाहिए । इस अद्भूत ढंग से सलेम का हृदय परिवर्तन दो ऋणों के धनात्मक परिणाम के रूप में सामने आया । अंग्रेजी में कहावत है कभी - कभी सत्य कल्पना से भी परे होता है।

श्रीमती आशा श्रीवास्तव
आर.डी.ए. कॉलोनी
टिकरापारा, रायपुर
प्लाट नं. : 45
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''राज ठोक रे''

ऐसा लगता है राज से कोई राक्षस कह रहा है ठोक रे, बिना सोचे समझे ठोकता जा। दांए बांए मत देख बस ऑंख बंद करके ठोकता जा। यह देखने की कतई ज़रूरत नहीं है कि सामने कौन है बस इतना याद रख मराठों भर को छोड़ना है उनके नाम की आड़ लेकर मेरी बात मानकर ठोकता जा। बड़ा मजा आता है मारकाट में हाथपैर टूटे खून बहते लोगों को देखकर जो आनंद आता है उसका सिर्फ महसूस ही किया जा सकाता बयान नहीं । शायद इसी कारण राज ठाकरे ने मारधाड़ शुरू कर दी है। उसने राजदंड की प्राप्ति के पहले ही डंडे को धारण कर लिया है। शायद वह सोच रहा हो डंडा भी तो राजदंड का वंशज है और वह उसे राजदंड की प्राप्ति तक पहुँचा दे!

राजनीति का अर्थ ही है जैसे मिले राज वही नीति अपनाना चाहिए। राजनीति में सिध्दांत न्याय व नीति का कोई काम नहीं क्यों कि इनसे 'राज' प्राप्ति कठिन ही नहीं नामुमकिन है। प्रजातंत्र में जनता तो भेड़ बकरी होती है उसे हांक कर ही राज प्राप्ति हो सकती है और हांकने की क्रिया को अंजाम देने के लिए डंडा जरूरी है। हो सकता है 'डंडे' को खुश करके उसके दादाजी (राजदंड) खुश हो जायें और सत्ता हाथ आ जाये। 'राज' भी राज करने का यह दर्शन केवल समझ ही नहीं वरन आत्मसात कर चुके हैं।

''राज ठोक रे'' यह किसी का नाम नहीं बल्कि राज करने या सत्ता के सिंहासन तक पहुँचने की सीढ़ी है अर्थात् अगर राज करना है या राज पाना है तो ठोकना जरूरी है। हल्ला करना, हल्ला बोलना सत्ताा पाने के मंत्र हैं। चाण्ाक्य साम, दाम, दंड, भेद सभी का इस्तेमाल करता था। अपना काम निकालने के लिए या यों कहें कि ये चारों सत्ता सिंहासन के चार पाए हैं जिससे सत्ता का सिंहासन पाना, बचाए रखना सरल एवं संभव होता है। कोई चाण्क्य ही उपरोक्त चारों को कुशलता पूर्वक काम में ला सकता है पर एक लाठी से हांकना सरल काम है। डंडा और राजदंड का चोर पुलिस का संबंध है। यह एक अजमाया हुआ शार्टकट है। कुछ उभरते नेता इस पर गहरी आस्था रखते हैं और बिना दांए बांए देखे इस पर निष्ठापूर्वक अमल करते हैं। प्रजातंत्र का तो यह सबसे मजबूत पाया है।

प्रजातंत्र में शासन के लिए बहुमत जरूरी होता है। अरस्तु कहता हैं बहुमत मूर्खो का होता है। इस हिसाब से ठोकने के महामंत्र को जपकर ही चलाया जा सकता है। मूर्खो को अपनी बात समझाने या कहें मानवाने के लिए ठोकना सबसे कारगर फार्मूला पाया गया है जिसकी लाठी है भैंस उसी कि मानी जाती है। तर्कशास्त्र का सिध्दांत भी है हाथ टेबिल को छू रहा है और टेबल जमीन को इस प्रकार यह मान लो हाथ टेबल को छू रहा है। इस हिसाब से जिसकी लाठी है भैंस उसी की माना जाना चाहिए।

प्रजातंत्र में जनता गूँगी, बहरी और सोती रहती है इसे जगाने के लिए डंडे की भाषा ही ठीक है। वैसे भी सोते हुए को जगाने के लिए हम उसे हिलाते हैं चिल्लाते हैं कभी - कभी पानी भी उसके मुँह पर मारते हैं। यह तो एक आदमी को जगाने के लिए है पर जब जनसाधारण को जगाना हो तो डंडे की ही जरूरत होती है।

''कहीं जला के राख न कर दे सूरज की तपिश,
आस्मां नींद में है इसके मुँह पर समंदर मारो।''

याने एक आदमी को जगाने के लिए एक चुल्लू पानी लगता है तो जनता को जगाने को समंदर याने डंडे की ही जरूरत होगी।


अब हमें सोचना यह है कि डंडा चलाकर हम अपनी किस बात को समझना चाहते हैं। किसी भी राजप्राप्ति के सिध्दांत की दुम ''अपना उल्लू'' पकड़े रहता है। सिध्दांत तो ऊपर जसा दिसते तसा नसते अर्थात जैसा दिखता है वैसा सच में होता नहीं। राज ठोकरे नए - नए नेता बने हैं या बनना चाहते हैं इसलिए अपनी उम्मीदवारी का एलान वे डंडे की भाषा से कर रहे हैं ताकि कोई सोने न पाए और जो सोए हैं वे जाग जायें। वे सत्ता पाना चाहते हैं यह भाषणबाज़ी से पाने में काफी समय लगेगा और क्या भरोसा कोई सुनता है या नहीं । अत: एक डंडा जमाओ और आदमी (जो डंडा खा चुका है) आपकी बात तुरंत समझ जायेगा। बचपन में हमने अपने गुरूजी से सुना था छड़ी पड़े छमाछम विद्या आए धमाधम। हमें विद्या ऐसे ही आई है।

कभी - कभी बिना वाजिब मुद्दे के राजनीति के अखाड़े में खड़ा होना आसान नहीं होता और गैरवाज़िब मुद्दे को मनवाने के लिए आचार्य डंडा प्रसाद जी को सर्वश्रेष्ठ गुरू सर्वसम्मति से माना जाता है। बाकि पार्टियाँ पहले से ही कुछ मुद्दों की पूँछ चुनाव की बैतरणी पार करने के लिए पकड़े खड़ी हैं करीब - करीब सभी सतही तौर पर ठीक ठाक लगने वाले मुद्दे खत्म हो चुके हैं भाजपा हिंदुत्व की कांग्रेस सर्वधर्म समानता समाजवादी पार्टी समाजवाद की और बाकी पार्टियों राष्ट्रीयता, धर्मनिर्पेक्षता, अपने क्षेत्रीय मुद्दों को अपने बैनरों में चस्पा कर चुकी है। अब ऐसी हालत में एक नया वाजिब सा दिखने वाला मुद्दा ढूँढना कठिन है सो राष्ट्र से बड़ा महाराष्ट्र का मुद्दा चलाने की थोड़ी बहुत गुंजाइश है। राज शायद पूरे राष्ट्र को धृतराष्ट्र समझ रहे हैं। उनके गुंडों की भीड़ में उन्हें इंच भर आगे का नहीं दिख रहा। 'महाराष्ट्र मराठों के लिए' मुद्दा उनके लिए शेर की सवारी है जिस पर एक बार चढ़ा तो जा सकता है पर उससे उतरा नहीं जा सकता वरना शेर खा जायेगा।

सभी समय एकसा नहीं होता । देश के बाकी अवसर वादी नेता राज को भला एक नया मुद्दा खड़ा करने देंगे ? अपना एक और प्रतिद्वंदी बढ़ने देंगे वे सब मिलकर राष्ट्र से बड़ा महाराष्ट्र नहीं है समझाएंगे। इसमें दम भी है आखिर प्रजातंत्र में बहुमत की चलती है और बहुमत राज के खिलाफ है। राज की खून खराबे की नीति कहीं उन्ही ही भारी न पडे। राज ठोक रे की जगह अगर 'राज को ठोकरे' आवाज बुलंद हुई तो राज के आज, कल, परसों सभी खतरे में पड़ जायेंगे।

श्रीमती आशा श्रीवास्तव
आर.डी.ए. कॉलोनी
टिकरापारा, रायपुर
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बाल नोच रे

मेरा नाम बाल नोच रे है। इसमें हैरत की कोई बात नहीं। व्यक्ति का नाम तो उसके माँ बाप रख देते हैं और दूसरा (निकनेम) पड़ोसी, पहचान वाला, या कभी-कभी दोस्त या दुष्मन रख देते हैं। दोस्त और दुष्मन एक ही श्रेणी में आते है क्योंकि दोस्त को दुष्मन और दुष्मन को दोस्त बनते देर नहीं लगती। सवाल जब फायदे का हो तो कोई भी पाला बदल लेता है। व्यक्ति का एक नाम मषहूर हो जाता है पर ऐसी उनके कार्यो के आधार पर होता है जैसे गाँधीजी को महात्मा, मदनमोहन मालरीय को महामना, शाहरूख को किंग, अमिताभ को बिग 'बी', के नाम से पुकारा जाता है। ठीक इसी तरह मेरा नाम बाल नोच रे मेरे कामों की वजह से पड़ गया। कुछ लोग मुझे महान कहे जाने वाले लोगों में शामिल करने लायक नहीं मानते, मुझे उनसे गिला नहीं में तो मानता हूँ ''अहं ब्रम्हास्सि'' फिलहाल तो यह नाम मुझसे इस तरह चिपक गया है जैसे अमर सिंह बीग ''बी'' से। इनकी तासिर ही चिकाऊ है आज कल यह कांग्रेस के फेविकाल की गिरफ्त में है। मैं भिड़ में अपनी पहचान खोना नहीं चाहता है भले ही लोग मुझे 'बाल नोचरे' कहें।

लोगों ने यह नाम यूंही नहीं दिया। इसके पीछे भी कारण है। दर्षनषास्त्र में परत: प्रमाण याने अप्रत्यक्ष प्रमाण और स्वत:(प्रत्यक्ष) प्रमाण का जिक्र मिलता है। लोगों ने मुझे बड़ी हस्तियों को इस कदर खिजयाते देखा है की वे अपने बाल नोचने की मानसिक स्थिति में पहुच गये इसलिए लोग मुझे बाल नोचरे के नाम से पुकारने लगे हैं। सच बात तो यह है कि प्रसिध्द (वो भी अपने गुणों के द्वारा) होने जैसी कोई खासियत मुझ में नहीं है और यह बात मैं खुद अच्छी तरह जानता हूँ इसलिए मैंने दूसरे रास्ते का रूख लिया। नाम कमाने के लिए बड़े भले काम करना पड़ता है जैसे समाज कल्याण इसके लिए दयानंद सरस्वती व्यक्ति व देष का उत्थान इसके लिए स्वामी ऐसा कोई गुण है नहीं अत: मैं ने सोचा नाम से जबकि बदनाम में चार। अब तो आप भी मुझसे सहमत होंगे कि नाम से बड़ा बदनाम होता है। नाम कमाने में नुकसान ही नुकसान है। इसके लिए समूची जिन्दगी हवन करना पड़ता है। उदाहरण के लिए सीता पुजीं भी तो धरती में समाने के बाद। उसके पहले तो वे जंगल-जंगल राजरानी होकर भी भटकती रहीं, उन्हें अग्निपरिक्षा देना पड़ा और राम के राजतिलक के बाद एक धोबी द्वारा लांछन लगाने पर बाकी का जीवन पुन: जंगल में काटना पड़ा वहीं उन्हें अपने बच्चे पालने पड़े। ऐसे नाम से मैं ने तो तौबा करली। इससे तो बदनाम हजारगुना भला। मुझे तो शोहरत पाने की खुजलाहट इतनी ज्यादा होती है कि रूकना मेरे लिए संभव नहीं। इस तरह यह सिध्द हो गया है कि बदनामी का मार्ग सर्वथा चुनने योग्य है। बदनाम होना है भी बड़ा सरल है। आप पड़ोसी की बाल्टी या लोटा ही चुरा लिजीए। आनन-फानन में आप दूर-दूर तक चोर के नाम से मषहूर हो जायेंगे। है न बदनाम होना सरल!

नामवाले प्रसिध्द लोगों के पक्ष में यह दनील दी जा सकती है कि लोग उन्हें बहुत प्यार व आदर करते हैं । मुझे लोग थोड़ा अलग तरह से आदर देते है॥ मुझसे बात करते समय एक प्रकार का भय उनके अंदर साफ झलकता है। मैं पहले प्रकार के लोगों की श्रेणी में नहीं आ सकता मगर मेरे पास एक और सषक्त दलील है। जब भी जहाँ भी गाँधी जी कर नाम लेते हैं गोड़से का जरूर जिक्र होता है। गाँधी जी ने जन्म भर एक धोती पहनी सर्दी गर्मी सही अ्रग्रेजों के गुस्से का षिकार कई बार बने तब प्रसिध्दी पाई पर गोड़से ने गाँधी जी पर तीन बार ठांय-ठांय गोली चलाई और उसने गाँधी जी के साथ चिपककर सीधे इतिहास में एंट्री ले ली। किसी ने कहा भी है ''बदनाम भी होंगे तो क्या नाम न होगा।''

अब मैं मुख्य बिंदु पर आता हूँ। 'बाल नोच रे' शब्द की पूरी व्याख्याता करता हूँ। बाल चहरे की सुन्दरता की शोभा होती है। ऐया कोई बिरला ही होगा जो सुन्दर बालों की कामना करता हैं। लोग बड़े चाव से अपने बाल सजाते, सवारते हैं उन पर ढेर सारा पैसा खर्चा करते है, फिल्मी हिरो तो बार-बार बालों पर हाथ फेर-फेर कर यह दर्षाते हैं 'देखो मेरे बाल कितने सुन्दर हैं'। ब्यूटी पार्लर और हेयर कटिंग सेलून तो आदमी की इस चाहत की दोहन स्थली है। यह सोचने वाली बात है कि जब आदमी अपने बालों को इतना चाहता है तो वह उन्हें नोचने को तैयार कैसे हो जाता है ? इस प्रष्न का पूछा जाना स्वाभाविक है। मैं इसे समझता हूँ।

केषकर्तनालय की तर्ज पर मैंने बाल नोचनालय ट्रेनिंग सेंटर खोला है ऐसा मुझे इसलिए करना पड़ा क्योंकि कोई भी अपने बाल नोचवाने अपनी मर्जी से तो यहाँ आने से रहा और अगर मुझे आपनी दुकान चलाना है तो मुझे अपनी दुकान चलाने के लिए पहले उपयुक्त विद्यार्थी ढूँढंने पड़ेंगे। बेकारी के दिनचल रहे है देष की जवानी घोर असंतुष्टी के दौर से गुजर रही है ऐसे में मुझे अपनी पसंद के विद्यार्थी ढूँढंने में बेहद मदद मिली। मैंने ऐसे मुसटंडे टाइप के लड़कों को अपने ट्रेनिंग सेंटर में भर्ती कर लिया जिन्हें देखकर अगला झटका जरूर खा जाता है। दूसरे स्टेप में मैंने उन्हें आदमी को अपने बाल नोचने पर मजबूर करने के नुस्खे बताना शुरू किया। मैं अपने आसपास के माहौल, राजनेताओं, उनकी राजनैतिक चालों, फिल्मी हस्तीयाँ, अन्य धर्मो की परंपराएँ, नए-नए अस्तित्व में आए उत्सवों पर अपनी तीखी दृष्टि डालना शुरू जारी रखा और बड़े प्रभावषाली लोगों के बयानों को पहले बाल की खाल निकालना और फिर उन्हें काट कतरकर बयान देने वाले को अपने बाल नोचने तक परेषान करने के लिए हथियार की तरह इस्तेमाल करने का विषेषज्ञ की तरह अध्ययन करना अपना मुख्य काम बना लिया। इसके बाद उसे अपने विद्यार्थीयों को बकायदा सिखाने लगा। कहीं भी किसी बयान, किसी मुद्दे, किसी घटना को दुर्बीन से घूरकर बारीक से बारीक छेद को ढूँढने और फिर उसमें घुसकर उसे चीरफाड़कर उसका वस्त्रहरण करने के गुर मैं अपने पट्ठों को सिखाता। इसके लिए शक्ति प्रदर्शन अति आवष्यक होता है जिसके लिए मेरे मुसटंडे विद्यार्थी लाठी डंडे से लैस हमेशा तैयार रहते। मेरे रंगढंग देखकर लोग सकते में रहेंगे और मुझसे भय खाते रहेंगे। यही तो मैं चाहता हूँ। भय कोई खाद्य पदार्थ नहीं है पर फिर भी खाया जाता है जैसे गम खाया जाता है आंसू पिए जाते हैं। मुझे इतनी ही जानकारी है। बाल नोचने की कला की प्रयोगषाला सारा समाज है जिसमें मैं लगातार परीक्षण करता रहता हूँ और देखता परखता रहता हूँ कौन सा मुद्दा, किस घटना, किस नारे , किस धर्म के क्रियाकलापों में कौन सा नुक्स है बस जैसे ही नुक्स का पता या यो कहूँ नुक्स की शक्ल देने लायक गुंजाइष दिखती है मैं अपने पड़े पेल देता हूँ। इससे भय उत्पन्न होता है समाज में कद बढ़ता है ओर डॉनत्व की प्राप्ति होती है। जबसे अमिताभ बच्चन ने डॉन फिल्म में काम किया तबसे रसातलगामी कार्य महिमामंडित हो गए हैं। डॉन रूपी व्यक्तित्व अपने आपको अपराधी समझने के बदले अमिताभ बच्चन समझने लगा है। मेरे हल्लाबोलात्मक क्रियाकलापों से संबंधित व्यक्ति, धर्म, जाति, वर्ग, प्रांत, के लोग इतने खीज जाते हैं कि अपने सजे संवरे सुन्दर बालनोचने लगते है और मेरा काम चल निकलता है। अब समझे आप मेरी इन्हीं गतिविधियों के कारण मेरा नाम बाल नोच रे है। मुझे देखते ही लोगों का ध्यान अनायास ही उनके बालों पर चला जाता है और मैं इस पर विजयी मुस्कान बिखेर देता हूँ।

मैंने निष्चय किया है कि मैं बाल नोचने की सत्ता उसको एक पंथ के रूप में स्थापित करवा कर रहूँगा। जैसे महावीर स्वामी बुध्द क्रमश:, जैन व बौध्द धर्म के प्रवर्तक बने उसी तरह मैं भी बाल नोच पंथ का प्रवर्तक बनूँगा। मेरे पास भी तो मेरे अनुयायीयों की फौज है। साठ के दशक में हरिशंकर परसाँई को व्यंग्य को विधा मनवाने के लिए संघर्ष करना पड़ा था मेरे सामने तो रास्ता साफ है। मेरा संख्याबल मुझे सत्ता सिहांसन का पाँचवां पाया तो बनवाएगा ही, साथ ही सत्ता रिमोट भी मेरे हाथ लग सकता है। इन सब में धन कितना मिलता है। इस बात को मैं अंधेरे में हीं रखूंगा। अब सब बातें तो बताने लायक नहीं होती। आदमी अपने कमजोर पॉइंट्स को लाँकर में रखता है और उसकी चाबी समुद्र में फेंक देता है आखिर इतनी कयामत के बाद पैसा न मिला तो क्या फायदा। यह तो नयी बात हुई रात भर पीसा सुबह चलनी में उठाया। अंत में मैं यही कह सकता हूँ की मेरी भविष्य की सफलताएं के अनुयायीयों के ऊपर निर्भर है।

मेरे उस जीवन का मूलमंत्र या सिध्दांत जो भी चाहे कह लिजिए किसी भी सिध्दांत का न होना है। आदमी को समय देखकर काम करना चाहिए। एकही लकीर को पीटते रहना अकलमंदी नहीं है। मैंने आपको बताया आजकल मेरा जीवन दर्षन (बालनोचना) दूधो नहा रहा है पूतो फल रहा है मेरा यह जीवन दर्षन किसी से प्रभावित होकर अस्तित्व में नहीं आया है। इसे मैंने ही प्रसव किया है। आप पूछ सकते हैं मै पुरूष हूँ मैं कैसे प्रसव कर सकता हूँ तो मेरा जवाब है भाई सिध्दांत तो प्रसव किया जा सकता है इसके लिए स्त्री होना कोई जरूरी नहीं। अब सब मुझे सलाम करते हैं। इससे मेरा अहं और खोखलापन फले न समाये। मैं आपको भी आपने बाल नोचने ट्रेनिंग सेंटर में दाखिल होने के लिए दावत देता हूँ। मेरी बात मानिए मैं गारंटी देता हूँ की सफलता आपके आंगन में बकरी बनकर बंधी रहेगी। - Asha Shrivastava

शादीयाफ्ता इश्‍क की दास्‍तां

‘शादीयाफ्ता’ शब्‍द सुनते ही सजायाफ्ता शब्‍द दिमाग का दरवाजा खटखटाने लगता है। शादी के बारे में आमराय तो यही है कि यह वो बला है जिसका काटा उफ् तक नहीं करता। शादी के आपनी ही पत्‍नी से इश्‍क की कोई दास्‍तां भी हो सकती है कहने वाला कोई सिरफिरा ही हो सकता है यह एक स्‍थापित सत्‍य सा है। कोई भी यह सुनने वाला झट से कह देगा शादी के बाद दासता तो देखी है पर इश्‍क की दास्‍तां न सुनी न देखी है। शादी के बाद इश्‍क शेष ही कब रहता है अगर कुछ रहता है तो वह इश्‍क कर अवशेष होता है।
पर मैं यह बात दावे के साथ पूरे होशोहवास में, दुरूस्‍त दिमागी हालत में, कह रही हूं। कलमकार की शंकर की तरह तीसरी आंख जो होती है। वह दिखने वाली वस्‍तु के अंदर का भी देख लेता है। वर्डसवर्थ इसे “इनवर्ड आई” कहते थे। मेरी तीसरी आंख ने अपने देश के एक बहुचर्चित नेता में प्रेमी शहंशाह शाहजहां की झलक देखी है। बल्कि मेरा तो मानना है वह शाहज‍हां से भी ऊँचे दर्जे का प्रेमी कहा जा सकता है।
याद रखिए आप मेरी तीसरी आंख से देख रहे हैं और आपके भी लालू प्रसाद भ्रष्‍टाचार शिरोमणि चारा घोटाला कांड कार्ता नहीं बल्कि एक महान प्रेमी दिखाई दे रहे है। हमने यह देखने की कोशशि ही नहीं कि वे शहंशाह शाहजहां जैसी प्रेमी का दिल रखते है। शाहजहां ने मुमताज के लिए ताजमहल बनवा दिया। मुमताज मलिका थीं हिन्‍दुस्‍तान की साथ ही बेहद सुंदर याने सारे वाजिब कारण थे शहंशाह के पास उनसे प्रेम करने के जबकि लालू एक साधारण आदमी से ऊपर, उनकी पत्‍नी प्रेमिका भी एक अत्‍यंत साधारण अनपढ़ महिला को उन्‍होनें सत्‍ता सिंहासन पर बैठा दिया। मुमताज तो बेचारी मरकर ताज में दफनाई गई जबकि जीवित राबड़ी देवी सत्‍तासीन हो गई। लालू ने उन्‍हे गौशाला से उठाकर सीधे मुख्‍यमंत्री की गद्दी दिला दी। यहतथ्‍य स्‍वत: प्रमाणित करता हैं कि लालू का दिल एक सच्‍चे प्रेमी का दिल कहा जाना चाहिए और ऐसा उदाहरण पूरी सदी में अपने आप में अनूठा हैं। मैं जानती हूं मेरी इस बात पर बहुत से मेरे पीछे डंडा लेकर पड़ जायेंगे या हो सकता है मुझे आरजेडी का समर्थक कहने लगें पर हमें कभी दूसरे नजरिए से भी देखना चाहिए। नजरें बदलेंगी तो नजारे तक बदल सकतें हैं। मैं एक शादीशुदा जोड़े में इश्‍क के एक बेमिसाल उदाहरण के रूप में राबड़ी देवी का राजनीति प्रवेश उनके पति प्रेम के प्रतीक स्‍वरूप दर्शाना चाहती हूं।
फिल्‍मों में हीरो को, किशोरों द्वारा प्रेमिका को सरप्राइज बर्थडे पार्टी, कार बंगला इत्‍यादि देते देखा सुना है पर लालू ने राबड़ी को सरप्राइज सत्‍तासिहांसन दे डाला हो सकता है कि वे गेशाली में व्‍यस्‍त हो और अचानक उन्‍हें उनके अपनी पार्टी का नेता बनने की खबर मिली हो। कितनी चमत्‍कृत हुई होगी वे।
जिस तरह शाहजहां आगरे के किले मैं कैद खिड़की से ताजमहल निहारता रहता था उसी तर्ज पर लालू जेल में कैद राबड़ी देवी के मुख्‍यमंत्री बनने बनवाने में न केवल प्रयासरत रहे बल्कि सफल भी हो गए। ध्‍यान देने की बात है बादशाह होकर भी शाहजहां शाक्तिहीन से थे जबकि कैदी हालत में भी लालू इतने सशन्‍क थे कि उनका लोहा मानना पड़ेगा।
जब राबड़ी देवी का ब्‍याह हुआ होगा (मैं विश्‍वास के साथ कह सकती हूं कि उनका प्रेमविवाह कतई नहीं था) उन्‍होंने सोचा भी न होगा कि उनका पति पत्‍नी प्रेम में शाहजहां की बराबरी क्‍या उसे मात भी दे सकता हैं। राबड़ी देवी को देखकार हिन्‍दुस्‍तान की महिलाएं रश्‍क करती हैं। किसी भी पति ने इस देश में अपनी पत्‍नी को इतना बड़ा तोहफा नहीं दिया होगा। इस हिसाब से लालू को सर्वश्रेष्‍ठ पति का सम्‍मान दिया जाना चाहिए। देश में कितनी योग्‍य व गुणी महिलाएँ पड़ी हैं उनके पति उनके लिए क्‍या कर पाए ! इन महिलाएओं ने अपने आपको अपने गुणों के कारण स्‍थापित किया। कंप्‍यूटर वाली शकुन्‍तला देवी हैं। इन्‍हें जीवन में प्राप्रि उनके अपने बलबूते पर मिली। राबड़ी देवी में तो ऐसी कोई योग्‍यता या गुण भी नहीं है। अपने बलबूते तो वो छोटी से छोटी नौकरी भी पाने की क्षमता नहीं रखतीं। पर किस्‍मत तो देखिए ऐसी महिला अचानक सत्‍ता सिहांसन पा गई। अन्‍य महिलाएं तो पति से एक साड़ी एक गहने को क‍हते थक जाती हैं तब भी कभी उन्‍हें वह मिल पाता है और भी नहीं भी।शाहजहां की तुलना में लालू को इस हष्टि से भी श्रेष्‍ठ कहा जा सकता है कि जेल से छूटकर उन्‍होंने पत्‍नी के साथ वर्षों सत्‍तासुख भोगा वरना अक्‍सर प्रेमी नहर खोदते, तारे गिनते या जूलियट की गैलरी के चक्‍कर लगा का मर जाते हैं।
बादशाहों को तो सत्‍ता विरासत में मिल जाती है परन्‍तु प्रजातंत्र में सत्‍ता कोई जबरा ही चुनाव का दंगल जीत कर पाता है। इसे भ्रष्‍टाचार, जिसकी लाठी उसकी भैस जैसी कोई बात नहीं हैं। जिन हाथों को सत्‍ता संभालना है उनके हाथ मजबूत तो होना ही चाहिए! ब्‍याह के वक्‍त रबड़ी देवी यह कहॉ जानती थी कि अचानक उन्‍हें राजनीति में आना पड़ेगा सत्‍ता संभालना पड़ेगा। वो तो हक्‍की बक्‍की रह गई होंगी जब उन्‍हें मुख्‍यमंत्री की कुर्सी मिली होगी। यह सब ऐसी है जैसे किसी घुड़सवारी से अनजान व्‍यक्ति को घोड़े पर बैठा दिया जाय और उसे हुक्‍म मिले घोड़े को सरपर दौड़ाओ।
एक बार अपने आपको लालू की जगह रखकर सोचिए। आप जेल में बंद हैं और बाहर आपकी पार्टी अल्‍पमत में होने के कारण संकट में है। बाहर सियासती हमाम में चिल्‍लपों मची हैं। ऐसे में अपनी अति साधारण पत्‍नी को गोल कराने का दम रखना कितना मुश्किल है। आखिर सियासत का सही अर्थ सत्‍तापर पकड़ ही तो है। सियासत में गालिब का तू नहीं कोई और सही का फार्मूला नहीं चलता वहीं में नहीं तो मेरा बेटा बेटी या बीबी ही सही चलता है।
राबड़ी देवी को सतियों की श्रेणी में अवश्‍य रखना चाहिए। सीता की तरह पति के पीछे चलना, मंदोदरा की तरह पति को नेक सलाह देना आसान है पर राबड़ी देवी की तरह अचानक (पति की आज्ञा से) प्रशासन संभालना बेहद कठिन काम है परन्‍तु बिना उफ् तक किए उन्‍होंने ऐसा कर दिखाया और वह भी इस युग में जब जरा जरा से विचार में मतभेद होने पर महिलाएं तलाक के लिए कोर्ट का दरवाजा खटखटाने लगती हैं। वे अपनी पति भक्ति, पति को ही त्‍याग कर जताने को तत्‍पर दिखती हैं।
पति के पीछे चलना आसान है पर उसके आगे चलना और सारे खतरे और सारे वार झेलना सहज नहीं है। राबड़ी देवी ने यह दुश्‍कर कार्य कर दिखाया। उन्‍हें माडर्न सति घोषित किया जाना चाहिए सीता बेचारी को तो राम ने पति प्रेम में जंगलों की खाक छनवा दी, कंदमूल फल और काटों का उपहार दिया और राज्‍य प्राप्ति के पहले अग्नि परिक्षा दिलवायी और राजा बनते ही उन्‍हें फिर जंगलों में छुड़वा दिया। इस हिसाब से तो लालू ने राबड़ी को राजमहल के सुख, (मीडिया सुख विशेष उल्‍लेखनीय हैं) दिए।
अंग्रेजी में किसी ने कहा है सत्‍य काल्‍पनिकता से अजीब सी चीज है। यह लालू राबड़ी के शादीशुदा इश्‍क की दास्‍तां पर फिट बैठता है। - Asha Shrivastava

राष्ट्रीय एकता

बूँद बूँद प्यार भर एक कलश में डालकर
बिरवा एक सींचकर खुशबुओं की गैल पर
हम चलें वतन चले।

चल पड़ी जो नफरतों की आंधियाँ,
खाक होंगी इंद्रा गांधियाँ
सुभाष खुदी राम लक्ष्मी बाइयाँ
व्यर्थ होगी सारी कुर्बानियाँ
इधर-उधर बिखर-बिखर
चल पड़ेंगे अगर
अपनों को ही लूटकर
हम छलें वतन छले।

कश्‍मीर झेलता रहा जो गोलियाँ
बंद होगी राखी और होलियाँ,
कैसे बजेंगी यहाँ शहनाइयाँ,
कैसे सुनेंगे भला किलकारियाँ,
जिगर-जिगर कतर-कतर
भाई बंद मार कर
रक्त बूँद सींचकर
हम रंगे वतन रंगे।

जिंदगी का दूजा नाम है सृजन
ढूँढेंगे हम नए गगन
सुमन-सुमन में बंद है एक चमन
चाहिए चमन के वास्ते अमन शीश गंगधारकर
गरल कंठ उतारकर
रष्मियों के हार पर
हम रहें वतन रहें

आशा श्रीवास्तव
आर. डी. ए. कालोनी, टिकरापारा, रायपुर छ.ग
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राजसूंघयज्ञ

प्राचीन ग्रंथों में राजाओं द्वारा राजसूयज्ञ किए जाने का जिक्र मिलता है। इसमें साम्राज्य विस्तार की आकांक्षा रखने वाला राजा राजसूयज्ञ करता था। वह पहले पुरोहितों को बुला कर विधिविधान से यज्ञ करता था तत्पष्चात् एक घोड़ा छोड़ा जाता था जिसके पीछे विजयाकांक्षी राजा की सेना चलती थी। यह घोड़ा सभी राज्यों से होकर गुजरता था तथा जो राजा विजयाकांक्षी राजा की अधीनता स्वीकार कर लेता था वह घोड़े का स्वागत करता था और जो अपनी स्वाधीनता बनाए रखता चाहता था वह सेना की लगाम पकड़ लेता था जिसका अर्थ होता था वह स्वाधीन रहना चाहता है। ऐसी स्थिति में उसे विजयाकांक्षी राजा की सेना से युध्द करना पड़ता था और युध्द के परिणाम द्वारा निर्णय होता था। अगर विजयाकांक्षी राजा की सेना विजयी होती थी तो दूसरा राजा उसकी आधीनता स्वीकार कर लेता था और यदि वह जीत जाता था तो उसकी स्वाधीनता बरकरार रहती थी।

समय बदलता है ओर अपने साथ अनेक बदलाव लाता है। अंग्रेजी कहावत है कि पुरानी व्यवस्था नई व्यवस्था के लिए स्थान बनाती है अर्थात् पुराना बदलता है और नया उसका स्थान ले लेता है। कुछ ऐसा ही राजसूयज्ञ के बारे में भी कहा जाता है। राजसूयज्ञ आजकल बदलकर राजसूंघयज्ञ हो गए है। इसे संपन्न करने वाला पहले से सूंघ लेता है कि उसे राजसत्ता मिलेगी या नहीं। कुछ लोगों की सूंघने की क्षमता कुत्तों को भी मात करती है उनमें कुत्ते के अन्य गुण जैसे भोंकना, काटना भी पाए जाते हैं पर चूंकि वे दोपाए होते हैं अत: उनमें कुत्ते की स्वाभिमान ईनामदारी वाला गुण अक्सर नहीं होता आखिर आदमी-आदमी है पूरा का पूरा कुत्ता थोड़े ही है।

राजसूयज्ञ राजतंत्र में राजा करते थें अब राजाओं का जमाना गया प्रजातंत्र आ गया पर अब भी सत्ता में महत्वाकांक्षाओं का वही स्थान है। अब भी राजसूयज्ञ तो नहीं पर ''राजसूंघ'' यज्ञ होते हैं। यज्ञ की पहले की तरह पुरोहित हवनकुंड के सामने मंत्रोच्चार के साथ तो नहीं करतें पर सत्ता मनीषिगण सत्ताप्राप्ति हेतु मंत्रणा अवष्य करते हैं। चुनाव आयोग में ऐसे मनीशि रहतें हैं इसे राजसूंघयज्ञ की तिथी की घोषणा करते हैं इसे राजसूंघयज्ञ का षंखनाद कहा जा सकता है। प्रजातंत्र में सत्ता एक व्यक्ति के हाथों में नहीं रहती अत: इसके (सत्ता के) आकांक्षी अनेक व्यक्ति होते हैं। समय के बदलाव के साथ राजसूयज्ञ के वंषज राजसूंघयज्ञ हो गए। प्रजातंत्र में सत्ता अनेक लोगों के हाथों रहती है। ये राजनैतिक पार्टियों में बंटे रहते हैं और इन्हें सत्ता सुन्दरी के वरण हेतु कई बार की मुद्रा में भी देखा जाता है। सत्तासुन्दरी का षरीर चुंबकीय पदार्थ का बना होता है और राजनैतिक पार्टियों की महत्वाकांक्षा लोहे की होता है अत: दोनों में चिपकाव स्वाभाविक माना जाना चाहिए।

चुनाव आयोग द्वारा चुनाव की तिथि की घोशणा के साथ चुनाव की षंखनाद कर होता है। चुनाव आयोग की चुनाव की तिथि की घोशणा महाभारत का प्रारंभिक दृश्य की स्मृतियाँ ताजी कर देती है। महाभारत में श्रीकृश्ण, अर्जुन, युधििश्ठर, भीम, नकुल सहदेव सहित और भी अन्यों के षंख की ध्वनि के साथ युध्दारंभ का वर्णन महाभारत में मिलता इसी प्रकार चुनाव की उद्धघोषणा के साथ विभिन्न राजनैतिक पार्टीयां अपना अपना बिगुल लेकर पूँछ फटकाकर अपने चुनाव मैदान में उतरने की उद्धघोषणा करते हैं। पहले के राजसूयज्ञ और आज के राजसूंघयज्ञ में एक अंतर हैं। राजसूयज्ञ राजा की मर्जी से कभी किए जाते थे पर राजसूंघयज्ञ की अवधि निष्चित होती है अत: चुनाव अवधि के नजदिक आने की आहट राजनैतिक पार्टीयों की गतिविधीयों से स्पश्ट सुनाई देने लगती है। बहुत पहले से जनता उनकी आहट जान लेती हैं। बात का यों भी कहा जा सकता है चुनाव की रोटी सोंधी गंध पाँच साल बीतते-बीतते आने लगती है। राजनैतिक पार्टियों के नथुने इस गंध से फड़कने लगते हैं और वे हरकत में आ जाते हैं। कुछ पार्टीयां पहले से ही सजग रहती हैं और कुछ अधनींदी सी उठती हुई और कुछ करीब-करीब सोई अवस्था में चुनाव सुन्दरी के स्वागत हेतु तत्पर दिखाई देती हैं ठीक वैसे ही जैसे ट्रेन या बस में गन्तव्य स्थान आने के पहले कुछ यात्री अपना समान तैयार कर घड़ी देखते हैं तो कुछ अलसाएं से अधजगे से और कुछ जैसे नींद में ही गन्तव्य स्थान पर उतरते हैं। राजनैतिक पार्टियों का भी ठीक ऐसा ही हाल रहता है।

राजसूयज्ञ के समान ही राजनैतिक पार्टियाँ घोड़े (उम्मीदवार) छोड़ने के पहले चुनाव में अपनी स्थिति का जायजा लेने के लिए पर्यवेक्षक भेजती हैं। राजसूयज्ञ कराने के पहले इसका इच्छुक राजा भी पहले अपने गुप्तचर भेजकर अन्य राजाओं की शक्ति के बारे में जानकारी इकट्ठा कर लेता था और जब अपनी स्तिथि मजबूत देखता तभी राजसूयज्ञ कराता था। प्राचीन काल में कुछ राजा घोड़े छोड़ने (राजसूयज्ञ का घोड़ा) वाले की सहज अधिनता स्वीकार कर लेते थे और जो स्वाधिन रहना चाहते थे वे घोड़े की रास पकड़ कर युध्द की उद्धघोषणा करते थे । इसी प्रकार राजनैतिक पार्टियों के कुछ उम्मीदवारों के खिलाफ कोई खड़ा नहीं होता और वे निर्विरोध चुन लिये जाते हैं पर कुछ उम्मीदवारों को कई-कई विरोधियों का सामना करना पड़ता है। मूल बात करीब-करीब दोनों यज्ञों में एकसी है पर बाहरी रूप का अंतर है हमारा भारतीय दर्षन भी मानता है आत्मतत्व एकही होता है अंतर केवल नाम रूप का होता है। प्रजातांत्रिक प्रणाली में चुनाव के रणस्थल में अनेक पार्टियाँ अपनी जोर अजमाइशी के लिए अपने उम्मीदवार उतारती है सुविधा के लिए हम पार्टि के टिकट को राजसूयज्ञ का घोड़ा कह सकते हैं। राजनैतिक पार्टियों की केन्द्रीय समिती अपने उम्मीदवारो को टिकट वितरित करती है। इन पार्टियों का टिकट बस, रेल, हवाईजहाजों के टिकट जैसा नहीं होता। इनके टिकट तो निश्चित धन राशि देकर कोई भी खरिद सकता है पर पार्टियों के टिकट के पीछ्रे भारी किट-किट होती है और किट-किट जंग में जीतता है वही टिकट का अधिकरी बनता है। इसके बंटवारे के समय गुप्तदान अखिलित संविधान की तरह प्रचलन में देखा गया है। कौन किसको कितना दान देता है इसे केवल ईश्‍वर जानता है क्योंकि धरा पर वहीं अदृष्य दृष्टा है।

पार्टी टिकट एक तरह से पार्टी का फरमान होता है जिसका आष्य होता है ''जाओ बच्चा'' अपना भाग्य साथ ही साथ हमारा भी भाग्य चमकाओं। टिकट वितरण स्थल का नजारा सिनेमा हॉल में किसी नई फिल्म के पहले शो के भिड़ की तरह होता है। ऐसा कहा जाता है, जर, जोरू और जमीन जबरे की होती है उसी प्रकार पार्टी का टिकट कोई जबरा ही पाता है वह अपने भक्तत्व (कुत्ता) को साबित कर देता अत: वह पार्टी का टिकट पा जाता है वह अपने भक्तत्व का समय-समय पर प्रदर्शन करता है जो बाद में पार्टी के टिकट के रूपय परिवर्तित हो जाती है। इन झबरो की रस्सी इनकी आलाभमान के हाथ में रहती है कुछ वाकई पूरे-पूरे झबरे होते है इसलिए कभी-कभी रस्सी तुड़ा कर भाग जाते हैं। कुछ अपनी रस्सी दूसरी राजनैतिक पार्टि के हाथ में दे देते है और कुछ छुट्टा फिरने लगते हैं।

जैसे राजसूयज्ञ कराने वाले राजा इसके घोड़े के साथ अपनी सेना भेजता था उसी प्रकार रासूंघयज्ञ के उम्मीदवार के साथ उसके समर्थकों की सेना भेजी जाती है। प्राचीन सेना के पास तलवार, भाले, गदा आदी हथियार रहते थे। रासूंघयज्ञ के उम्मीदवार के पास पार्टी के पर्चे, बेनर, कटआउट नारे आदि हथियार के साथ इसका भी इस्तेमाल करने वाले भी रहते हैं। इनका रणस्थल इनका चुनाव क्षेत्र होता है इनकी रैली में दोपहिए वाहन, पैदल, कारें, ट्रक इत्यादी काफिला रहता है जिसे देखकर किसी सेना का आभास सा होता है। चुनाव के पहले तक उम्मीदवार उम्मीद से रहने वाली स्त्री की तरह होता है। प्रसव के बाद लड़का लड़की भी हो सकता है मेरा बच्चा पैदा हो सकता है बीमार बच्चा पैदा हो सकता है। इसी तरह उम्मीदवार चुनाव जीत सकता है, उसकी जमानत जप्त हो सकती है जमानत बच भी सकती है। उम्मीदवार के रणस्थल की बात इस बीच पीछे छूट गए चुनाव क्षेत्र में मंच पर सवार होकर कभी उम्मीदवार कभी उसके समर्थक अपने विरोधियों की ऐसी तैसी करते हैं जिसकी तुलना प्राचीन युध्द से भी की जा सकती है। चुनाव के दिन के 48 घंटे पहले तूफान के पहले की शांति का सामराज्य हो जाता है पर ऐसा नहीं है की वास्तव में सब कुछ शांत रहता है जैसे समुद्र को देखकर उसके अंदर छिपे तूफान का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता उसी प्रकार इन 48 घंटो में ऊपर से शांत दिखने वाले वातावरण में अंदर ही अंदर बड़ी तेजी से पार्टीयों के क्रिया कलाप चलते रहते हैं। पार्टी समर्थक वोटर प्रभु को प्रसन्न करने के लिए शराब, साड़ी, कंबल, खाद्य पदार्थों के वितरण चुप चाप करते रहते हैं यह कोई नई बात नहीं है पहले भी सत्ता सुन्दरी को हथियाने के लिए षड़यंत्र, प्रपंच, विष कन्याओं, शराब का सहारा लिया जाता रहा है दुनिया में कुछ भी बदलना नहीं केवल उसके बाहय रूप में परिवर्तन आता है। चुनाव के दौरान विरोघियों के पोस्टर झंडे फाड़ना, उनकी सभा में हल्लाह मचाना, अंडे टमाटर फेकना कभी तो मार पीट खूनखराबा भी देखने को मिलता है इनसे जो भी अधिक जबरे होते हैं पीठासीन अधिकारी पर बैठकर ठकाठक वोट छापकर चलते बनते हैं और आम आदमी की वोट डालने की मेहनत बचा देते हैं। ये सच्चे जन सेवक होते हैं।

चुनाव परिणाम वोटों की गिनती के पष्चात घोषित होते हैं और पार्टी समर्थक पुन: काम पर लौट आते है। पुन: वातारण में ढोल मजीरे लाउडस्पीकर के हो हल्ले के साथ उम्मीदवार का विजय जुलूस निकलता है। विजयी पार्टी अपनी राजसूंघयज्ञने की क्षमता का एलान विजय जुलूस के रूप में करती है। जैसे प्राचीन राजसूयज्ञ का घोड़ा सभी राज्यों में घूमकर अंत में अपने राजा के पास लौट जाता है उसी प्रकार विजयी उम्मीदवार संसद विधान सभाओं में पहुंच जाते हैं परन्तु सत्ता का एक ही केन्द्र न रहने के कारण अंदरूनी तोर पर इसकी ठंडी लड़ाई (कोल्डवार) चलती रहती है। यहाँ यह बताना जरूरी है कि राजसूयज्ञ यज्ञ के घोड़े के वापस लौटने पर समाप्त हो जाता है पर राजसूंघयज्ञ में सत्ता पार्टी को पूरे कार्यकाल सूंघने का काम जारी रखना पड़ता है वरना सत्ता के पाये खिसकने का खतरा रहता है। अगर गहराई से देखा जाय तो उम्मीदवार आदमी कम राजसूंघयज्ञ के घोड़े अधिक होते हैं उनका पशुल प्रदर्शन बंद नहीं होता। वे घोड़े की तरह भागने को तैयार रहते हैं। घोड़ा कभी बैठता नहीं बल्कि वह सोता भी खड़े-खड़े ही है। राजसूयज्ञ के घोड़ों और राजसूंघयज्ञ के घोड़ों में एक भारी अंतर है असली घोड़े शाकाहारी होते है जब कि राजसूंघयज्ञ के घोड़े चारातक खाजाते हैं और मांसभक्षी भी होते है। समय के साथ चाहे कितना भी बदलाव आजाये पर आदमी का सत्ताप्रेम बना रहता है। कहा भी जाता है आदमी हाड़मांस का पुतला है सो उसका हाड़मास कभी नहीं बनता। वह अपने हाड़मासत्व को छाती से लगाए रखता है आखिर उसे साधु या देव थोड़े ही बनना है जब उपर वाले ने उसे आदमी तो वह वही बने रहना चाहता है आदमी की लगाम कमजोरियों के साथ वह सत्ता सूंघने के कुत्तत्व से कभी छुटकारा नहीं पा पाता। - Asha Shrivastava

Tuesday, December 2, 2008

Asha Shrivastava Samman Sahitya Shiromani



Samman of English Lecturer, Vyangakar, Sahityakar Smt. Asha Shrivastava by Web Media at salvo of Sahitya Shiromani Maanad Upadhi by Allahabad Hindi Sevi Sansthan to Smt. Asha Shrivastava

Asha Shrivastava - Prajatantra



English Lecturer, Sahityakar, Vyangakar, Kaviyatri Smt. Asha Shrivastava read her Vyangatmak Kavita - Prajatantra in Ghosthi by Web Media